हजारों उपग्रह हैं मौजूद
ये कृत्रिम उपग्रह दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति एलन मस्क की कंपनी स्पेसएक्स द्वारा छोड़े गए थे। पृथ्वी की निचली कक्षा में एक विशेष कोण पर स्थापित होने के कारण सूरज की किरणें इन उपग्रहों से परावर्तित होती हैं और उनकी चमक गुजरने वाले देश-क्षेत्र में दिखाई पड़ने लगती हैं। ठीक वैसे ही जैसे सूरज की किरणें पृथ्वी के प्राकृतिक उपग्रह चांद से परावर्तित होकर उसे दृश्यमान बनाती हैं। ये तो रही एलन मस्क की कंपनी द्वारा वर्तमान में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कुछ मुट्ठीभर उपग्रहों की बात, लेकिन कहा जाए कि हमारी पृथ्वी की परिक्रमा सिर्फ एक चांद द्वारा नहीं की जाती बल्कि हजारों चांद (प्राकृतिक और कृत्रिम) इस काम में जुटे हुए हैं तो गलत नहीं होगा। हां, इन सभी के काम और जीवन काल अलग-अलग अवश्य हो सकते हैं।
पृथ्वी की निगरानी
ये उपग्रह पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं सहित अन्य ग्रहों की परिक्रमा करते हुए उनकी निगरानी में अनवरत लगे हुए हैं। इनमें से आधे से अधिक उपग्रह अपनी आयु पूरी कर नष्ट हो चुके हैं या मृत (नान फंक्शनल) हो आकाशगंगा में विलीन हो चुके हैं। यही वजह है कि किसी साफ मौसम में रात के समय आसमान में देखने पर किसी न किसी उपग्रह के यूं ही दिख जाने की संभावना बनी रहती है।
जांबी उपग्रह का बढ़ा खतरा
अब तो आलम यह है कि अंतरिक्ष में दिनोंदिन उपग्रहों की बढ़ती संख्या अंतरिक्ष विज्ञानियों के लिए चिंता का सबब भी बनने लगी है। किसी अन्य उपग्रह से टकराने, नष्ट उपग्रह के कचरे से दूसरे उपग्रह का काम प्रभावित होने, टेलीस्कोप से अंतरिक्ष पर निगाह रखने के काम में व्यवधान पड़ने जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगी हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि अब जांबी (जी हां! आपने सही पढ़ा जांबी यानी भूतिया) उपग्रहों ने भी अन्य उपग्रहों के लिए खतरा पैदा करना शुरू कर दिया है। अंतरिक्ष विज्ञानियों ने समय-समय पर जांबी उपग्रह, यानी ऐसे उपग्रह जो जीवनकाल पूरा कर अक्रियाशील अथवा नष्ट कर दिए गए थे, की फ्रीक्वेंसी कैप्चर करने में सफलता प्राप्त की है। आधिकारिक रूप से जांबी उपग्रह के होने की पुष्टि वर्ष 2013 में तब हुई ब्रिटिश अंतरिक्ष विज्ञानी फिल विलियम्स ने रेडियो पर एलईएस-1 नामक उस उपग्रह की फ्रीक्वेंसी प्राप्त की, जिसे यूनाइटेड एयरफोर्स ने 1965 में प्रक्षेपित किया था और 1967 में उस पर से विज्ञानियों का नियंत्रण समाप्त हो गया था। बाद में उसे मृत अथवा नष्ट मान लिया गया था। जांबी उपग्रह से संपर्क स्थापित होने की सबसे हाल की घटना 2020 की है। कनाडाई स्काट टिल्ली को एलईएस-5 नामक मृत घोषित उपग्रह से रेडियो संदेश प्राप्त हुए। इससे पहले 2018 में भी स्काट का संपर्क नासा द्वारा प्रक्षेपित इमेज (आइएमएजीई) नामक उपग्रह से हुआ, जो वर्ष 2005 में नियंत्रण से बाहर हो गया था और आकाशगंगा में कहीं गुम हो गया था। तो, जिस प्रकार इंसानी दुनिया में जांबी के अस्तित्व की बात डर और दहशत पैदा करने के लिए काफी है, वैसी ही दहशत और डर अंतरिक्ष विज्ञानियों को भी है। उनके डर का कारण जांबी उपग्रहों का अनियंत्रित होना और कभी भी किसी स्पेस स्टेशन या अन्य उपग्रहों को नुकसान पहुंचाने में सक्षम होना है।
आसमान से लौटी आफत
स्पेस स्टेशन और कार्यरत उपग्रह को नुकसान पहुंचाने के अतिरिक्त ये जांबी उपग्रह धरती और यहां रहने वाले इंसानों के लिए भी कभी भी खतरा बन सकते हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण हाल ही में चीन द्वारा प्रक्षेपित लांग मार्च-5 बी राकेट का अनियंत्रित हो जाना और पृथ्वी के वायुमंडल में लौट आना था। पांच नवंबर, 2022 को 25 टन के इस राकेट ने प्रशांत महासागर में गिरने से पहले इतनी दहशत फैलाई कि स्पेन को अपने एयरपोर्ट बंद कर सभी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय उड़ानों को स्थगित करना पड़ा था। इसके पूर्व भी कई बार ऐसे जांबी या अनियंत्रित राकेट/उपग्रह से धरती पर बड़ी मात्रा में तबाही मचने जैसी घटनाएं हो चुकी हैं।
दबदबा बनाने की होड़
अब प्रश्न यह उठता है कि अंतरिक्ष में उपग्रह भेजने और वहां स्थायी स्पेस स्टेशन बनाने की वैश्विक होड़ और आपाधापी आखिर किसलिए? जवाब यह है कि धरती पर सुपर पावर बनने की अमेरिका और रूस (पूर्व सोवियत संघ) की होड़ ने शीत युद्ध के दौरान अंतरिक्ष में दबदबा कायम करने की महत्वाकांक्षा को जन्म दिया। 1957 में दुनिया के सबसे पहले उपग्रह स्पुतनिक-1 को प्रक्षेपित कर पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने के काम में रूस ने बाजी मारी। 1958 में जब तक अमेरिका अपने उपग्रह एक्सप्लोरर-1 को प्रक्षेपित करने में सफलता प्राप्त करता, उससे पहले ही रूस ने दूसरे उपग्रह स्पुतनिक-2 को अंतरिक्ष में भेज बढ़त बना ली। इस उपग्रह का मुख्य काम पृथ्वी के वातावरण की जानकारी एकत्र करना था, लेकिन अमेरिका और कुछ अन्य देश मानते थे कि यह उनकी जासूसी के लिए था।
इरादों में है अंतर
इस प्रकार, वातावरण की निगरानी और संचार व्यवस्था में सहयोग के नेक उद्देश्य (कथित तौर पर) के साथ शुरू हुए उपग्रह कार्यक्रम आज एक देश द्वारा दूसरे देश की जासूसी और उस पर वर्चुअल नियंत्रण हासिल करने में तब्दील हो गए हैं। कार्य और उद्देश्य के आधार पर उपग्रह को एस्ट्रोनामिकल, बायोसेटेलाइट, कम्युनिकेशन, अर्थ आब्जर्वेशन, नेविगेशन, मिलिट्री, रिकानेसां, मिनिएचर, टीदर, वेदर आदि में विभक्त किया जाता है। आरंभिक दिनों में उपग्रह प्रक्षेपण की होड़ जहां अमेरिका और रूस के बीच ही सीमित थी, वहीं आज चीन और भारत दमदार प्रतिस्पर्धी बनकर उभरे हैं। भारत व अन्य देशों के उपग्रह कार्यक्रम के बीच मूलभूत अंतर यह है कि जहां अन्य देश अपने अधिकांश उपग्रहों का उपयोग दूसरे देशों की जासूसी के लिए करते हैं वहीं भारतीय उपग्रह कार्यक्रम देश में पर्यावरण से संबंधित जानकारी, डायरेक्ट टू होम संचार प्रणाली, नेविगेशन और ताररहित दूरसंचार के उद्देश्य पर आधारित है। 1975 में 'आर्यभट्ट' के साथ शुरू हआ भारतीय उपग्रह कार्यक्रम सफलता के साथ मितव्ययिता के नए आयाम गढ़ रहा है। आज दुनिया के तमाम देश भारत से अपने उपग्रह लांच कराने के लिए उत्सुक है।
आज शिक्षा, इंटरनेट सेवा, विलुप्त होते जीवों की निगरानी, कृषि सहित अंतरिक्ष पर्यटन के लिए उपग्रहों का जमकर उपयोग होने लगा है। पूर्व में राष्ट्रीय सुरक्षा और स्वाभिमान की बात होने के कारण उपग्रह कार्यक्रम जहां सरकार और सरकारी एजेंसियों तक ही सीमित थे, वहीं अब इस क्षेत्र में निजी स्पेस कंपनियों की भी सशक्त भागीदारी देखने को मिल रही है। एलन मास्क के स्पेसएक्स और भारतीय स्काइरूट एयरोस्पेस सहित कई अन्य निजी कंपनियां इस क्षेत्र में पांव पसार रही हैं। उम्मीद है कि आने वाले वक्त में इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और किफायती तरीके से निजी उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए जा सकेंगे।
(लेखक पत्रकार और पब्लिक पालिसी मामलों के जानकार हैं)