इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए इस दिन मुस्लिम शिया समुदाय के लोग सड़कों पर मातम जुलूस और ताजिया निकालते हैं.
मुहर्रम का चांद दिखने के बाद शिया समुदाय के लोग पूरे महीने शोक मनाते हैं. इस दौरान वे लाल सुर्ख और चमक वाले कपड़ों से दूरी बना लेते हैं. मुहर्रम के पूरे महीने शिया मुस्लिम किसी तरह की कोई खुशी नहीं मनाते हैं और न ही शादियां होती हैं. शिया महिलाएं और लड़कियां भी सभी श्रृंगार की चीजों से दूरी बना लेती हैं.
कर्बला में क्रूर शासक से हुई थी इमाम हुसैन की जंग
इस्लामिक जानकारियों के अनुसार, करीब 1400 साल पहले कर्बला की जंग हुई थी. यह इस्लाम की सबसे बड़ी जंग में से एक है. इस जंग में इमाम हुसैन धर्म की रक्षा करते हुए शहीद हो गए थे.कहा जाता है कि यह जंग इराक और कर्बला में यजीद की सेना और हजरत इमाम हुसैन के बीच हुई थी. कर्बला की यह जंग अत्याचारी शासक यजीद के खिलाफ थी.
दरअसल, यजीद इस्लाम धर्म को अपने अनुसार चलाना चाहता था. इसी वजह से यजीद ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को भी अपने फरमान का पालन करने के लिए कहा. यजीद ने फरमान दिया कि इमाम हुसैन और उनके सभी साथी यजीद को ही अपना खलीफा मानें. यजीद चाहता था कि इमाम हुसैन ने अगर किसी तरह उसे अपना खलीफा मान लिया तो वह आराम से इस्लाम मानने वालों पर राज कर सकता है.
हालांकि, पैगंबर मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को यह फरमान मंजूर नहीं था. इमाम हुसैन ने साफ तौर पर ऐसा करने से इनकार कर दिया. यजीद को इस बात पर काफी गुस्सा आया और उसने इमाम हुसैन व उनके साथियों पर जुल्म करने शुरू कर दिए.
मुहर्रम की 10 तारीख को कर्बला में यजीद की फौज ने हुसैन और उनके साथियों पर हमला कर दिया. यजीद की सेना काफी ताकतवर थी, जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे.
इमाम हुसैन धर्म की रक्षा करते हुए आखिरी सांस तक यजीद की सेना से लड़ते रहे. इस जंग में हुसैन के 18 साल के बेटे अली अकबर, 6 महीने के बेटे अली असगर और 7 साल के भतीजे कासिम का भी बेरहमी से कत्ल कर दिया गया.
डिस्क्लेमर: यहां दी गई जानकारी प्रचलित मान्यताओं व धार्मिक विश्वासों पर आधारित है तथा केवल सूचना के लिए दी जा रही है। Digital media news इसकी पुष्टि नहीं करता है।
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