कारगिल विजय दिवस के 25 साल, पीएम ने दी श्रद्धांजलि, जानें कारगिल युद्ध का पूरा इतिहास

Digital media News
By -
0
कारगिल विजय दिवस के 25 साल, पीएम ने दी श्रद्धांजलि, जानें कारगिल युद्ध का पूरा इतिहास


भारत आज 26 जुलाई को 25वां कारगिल विजय दिवस मना रहा है। आज ही के दिन हमारे भारतीय रणबांकुरों ने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की सेना को धूल चटाई थी। दोनों देशों के बीच इस युद्ध में जीत अंत में भारत की ही हुई। शौर्य और वीरता की कहानी लिए कारगिल में आज पीएम नरेंद्र मोदी पहुंचे। यहां वह कारगिल की लड़ाई में शहीद हुए वीर जवानों को श्रद्धांजलि दी। इसके बाद पीएम देश को संबोधित किया। पीएम ने अग्निपथ स्कीम को लेकर अपनी सरकार का मिशन भी बताया। पीएम मोदी ने नीमू-पदम-दारचा एक्सिस पर बनने वाली शिंकुन ला टनल पर काम की वर्चुअल तरीके से शुरुआत किया।15,800 फुट की ऊंचाई पर बनाई जा रही यह सुरंग हर मायने में खास होगी।

शेवक मौत का दरिया है जो ना कई युद्धों का अकेला और ख़ामोश गवाह है बल्कि कई लाशों पर अकेले मातम मनाने वाला रहा है.

लद्दाख के रास्ते बल्तिस्तान में प्रवेश करने वाली नदी शेवक का शाब्दिक अर्थ भी 'मौत' ही है.

आज से लगभग 25 साल पहले उन ही दिनों में उफ़नती हुई शेवक का शोर, जो आम दिनों में दूर से सुनाई देता है, पाकिस्तान और भारत के तोपख़ानों की गोलाबारी की तेज़ आवाज़ों के आगे बेबस दिखाई देता था.

वे कारगिल ऑपरेशन के अंतिम दिन थे, जिस दौरान दोनों ओर से सैकड़ों फ़ौजियों ने गगनचुंबी चट्टानों पर मौत के साये तले एक ऐसी जंग में हिस्सा लिया, जिसे भारत में 'ऑपरेशन विजय' और पाकिस्तान में 'ऑपरेशन कोह-ए-पैमा' यानी 'ऑपरेशन पर्वतारोहण' का नाम दिया गया.

 यह युद्ध कई सेक्टर्स में विभाजित मोर्चों पर लड़ा गया, जिनमें से एक शेवक नदी के पास था. यहीं इस नदी के किनारे बर्फ़ीली ढलानों में जान गंवाने वालों में पाकिस्तानी फ़ौज के कैप्टन फ़रहत हसीब हैदर और भारतीय फ़ौज के कैप्टन हनीफ़ उद्दीन भी थे.

कैप्टन फ़रहत का संबंध पाकिस्तान की 7 एन एल आई रेजिमेंट से था जबकि कैप्टन हनीफ़ भारत के 11 राजपूताना राइफ़ल्स के अफ़सर थे. ये दोनों अलग-अलग मोर्चों पर जवान गंवा बैठे.

बेहद ख़राब मौसम, दुर्गम रास्तों और दो फ़ौजों की एक दूसरे पर लगातार फ़ायरिंग ने उनकी लाशों तक पहुंचना असंभव बना दिया था.

कैप्टन फ़रहत हसीबः 'वह बहादुरी से आख़िरी दम तक लड़े'

 
कैप्टन फ़रहत हसीब को भारतीय स्काउट्स के ख़िलाफ़ एक जवाबी हमला करना था. उनके साथ 11 जवान थे जबकि वे ख़ुद उस दस्ते की कमान संभाल रहे थे. उन्होंने कुछ घंटों में ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया. उन दिन 24 भारतीय फ़ौजियों की जान चली गई.

इससे पहले कि वे वापस सुरक्षित जगह की तरफ़ लौटते, ऊंचाई पर मौजूद भारतीय चौकियों से तोपख़ाने की गोलाबारी शुरू हो गई और वे अपने साथियों समेत इसके निशाने पर आ गए.

उस लड़ाई में दो पाकिस्तानी जवानों के अलावा कोई ज़िंदा नहीं बच सका. उनमें से भी एक बाद में जान गंवा बैठा. बचने वाले अकेले सिपाही मोहम्मद सुलेमान के अनुसार कैप्टन फ़रहत हसीब बहादुरी से 'आख़िरी दम तक लड़ते रहे.'

इस घटना से सिर्फ़ तीन ही दिन पहले उसी सेक्टर में भारत के कैप्टन हनीफ़ उद्दीन पाकिस्तानी फ़ौज से एक चौकी वापस लेने के लिए कार्रवाई पर निकले थे.

भारतीय सेना तुर्तूक की चोटियों पर बनी चौकियां वापस लेने की कोशिश कर रही थी. कैप्टन हनीफ़ उद्दीन भी एक निडर फ़ौजी की तरह बहादुरी से लड़े लेकिन मगर मिशन में सफल नहीं हो सके और वह चौकी हासिल न कर सके जिसके लिए निकले थे.

पाकिस्तानी फ़ौजी दस्तों ने उनका हमला नाकाम कर दिया. कार्रवाई के दौरान हनीफ़ उद्दीन अपने साथियों समेत अपनी जान गंवा बैठे.

यह भारत प्रशासित क्षेत्र था. उफ़नती नदी शेवक के किनारे उनकी लाशें कई सप्ताह तक बर्फ़ पर बिखरी रहीं.

कारगिल युद्ध और 'लापता जो शहीद माने गए'

भारत और पाकिस्तान के बीच यह युद्ध मई से जुलाई 1999 के दौरान नियंत्रण रेखा के साथ जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र कारगिल और इससे सटी बर्फीली चोटियों पर लड़ा गया.

इस युद्ध में होने वाली मौतों के वास्तविक आंकड़े उपलब्ध नहीं लेकिन भारत में 527 से अधिक सैनिक शहीद हुए।

1999 का कारगिल युद्ध क्यों और कैसे शुरू हुआ, इस बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है लेकिन इस जंग का एक मानवीय पहलू ऐसा भी है जिस पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया.

25 साल बाद आज भी ऐसे परिवार मिलते हैं जो मोर्चे पर जाने वाले अपने प्यारों का इंतज़ार कर रहे हैं, जिनकी मौत की ख़बर तो आ गयी, पर वे हज़ारों फुट की ऊंचाइयों पर बर्फ़ की चादर तले न जाने कहां दफ़न हो गये. इन फ़ौजी अफ़सरों की सही संख्या से संबंधित आंकड़े सार्वजनिक रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं हैं.

इस संबंध में इंटरनेट पर उपलब्ध एक सूची के अनुसार पाकिस्तान फ़ौज के 25 अफ़सर कारगिल के युद्ध के दौरान मारे गये जिनमें चार अफ़सरों को 'मिसिंग बिलीव्ड किल्ड' यानी वैसे अफ़सर जो लापता हैं मगर उन्हें 'शहीद' माना जाए.

उनमें बानियाल सेक्टर में कैप्टन अहसन वसीम सादिक़, शेवक सब सेक्टर में कैप्टन तैमूर मलिक, बानियाल सेक्टर में ही मेजर अब्दुल वहाब और टाइगर हिल्स पर मेजर अरशद हाशिम शामिल हैं.

उनमें से कैप्टन तैमूर मलिक का पार्थिव शरीर बाद में पाकिस्तान पहुंचा लेकिन इस सूची में कैप्टन अम्मार हुसैन और कैप्टन फ़रहत हसीब हैदर के नाम भी शामिल हैं.

इन फ़ौजी अफ़सरों का पार्थिव शरीर क्यों नहीं लाया गया, और उनके घरवालों पर क्या बीती, इस बारे में जानने के लिए मैंने ऐसे कई परिवारों और कारगिल युद्ध में हिस्सा लेने वाले वाले पाकिस्तानी फ़ौजियों से बात की है.

कैप्टन अम्मार हुसैनः कैप्टन कर्नल शेर के साथी जो टाइगर हिल्स से वापस न आ सके

 
आपने कैप्टन करनाल शेर ख़ान का नाम तो निश्चित रूप से सुना होगा जिनकी कारगिल युद्ध के दौरान बहादुरी की तारीफ़ ख़ुद भारतीय सेना ने की थी. उन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सैनिक सम्मान निशाने हैदर भी प्रदान किया गया लेकिन कैप्टन कर्नल शेर ख़ान की ज़िंदगी के उस आख़िरी ऑपरेशन में उनके साथ एक और अफ़सर भी शामिल थे जो वापस नहीं आ सके.

यह कैप्टन अम्मार हुसैन थे जिनके नाम पर रावलपिंडी में चकलाला सैन्य केंद्र के सामने अम्मार शहीद चौक बनाया गया है. अंदाज़ा यह है कि कैप्टन अम्मार हुसैन टाइगर हिल्स पर ही दफ़न हैं.

कैप्टन अम्मार के घर में दाखिल हों तो ड्राइंग रूम में उनकी तस्वीरें और मेडल नज़र आते हैं. उनकी मां कभी अपने बेटे से होने वाली आख़िरी मुलाक़ात, कभी युद्ध के दौरान उनकी बहादुरी के क़िस्से और फिर पूर्व फ़ौजी राष्ट्रपति जनरल रिटायर्ड परवेज़ मुशर्रफ़ के वादे याद करती हैं जो आज तक पूरे नहीं हो सके.

कैप्टन अम्मार हुसैन 14 जून को आख़िरी बार अपनी मां से मिलने आए थे.

'वो रात मेरे लिए सुकून की आख़िरी रात थी. उसने मुझे कहा कि अम्मी आप लेटें, मैं टांगें दबा दूं. वह हमेशा मेरी टांगें दबाता था, और खुद नीचे बैठता था. जब 15 जून को कॉल आई तो मैं परेशान हो गई. मैंने कहा कि तुम क्यों ट्रैक बदल रहे हो, इतनी अच्छी यूनिट छोड़कर तुम एसएसजी में आ गए हो. वह मेरे सामने ज़मीन पर बैठा और मुझसे कहा कि 'तो फिर अम्मी मुझे क्यों फ़ौज में भेजा था?'

कैप्टन करनाल शेर ख़ान और अम्मार की दोस्ती जो मरते दम तक क़ायम रही

15 जून को कैप्टन अम्मार हुसैन की छुट्टियां रद्द कर दी गईं और उन्हें वापस बुला लिया गया.

उनकी मां बताती हैं कि 'उसी रात अम्मार ने मेरे पास बैठकर सारी चेक बुक्स पर दस्तख़त किए. उस वक़्त मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैंने कभी अपनी कमज़ोरी बच्चों पर ज़ाहिर नहीं होने दी थी. आंसू देख कर उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा कि अम्मी आप तो बड़ी बहादुर हैं. फिर मेरे सामने बैठकर मेरे घुटनों पर हाथ रखा और कहा कि अम्मी आपने फिर मुझे क्यों फ़ौज में भेजा था. मुझे किसी दुकान पर बैठा देतीं.'

कैप्टन अम्मार पहले गिलगित के पास नार्दन लाइन इन्फेंट्री के सेंटर बूंजी पहुंचे जहां से उनको अस्तूर के रास्ते लाइन ऑफ़ कंट्रोल के क़रीब स्थित गलतरी की ओर रवाना कर दिया गया.

गलतरी में उनकी मुलाक़ात 12 एन एल आई रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफ़िसर कर्नल ख़ालिद नज़ीर से हुई जो बाद में बतौर ब्रिगेडियर फ़ौज से रिटायर हुए. उनकी आख़िरी मंज़िल टाइगर हिल्स थी जहां वह 25 जून को पहुंच गए.

 
कैप्टन अम्मार को यहां कैप्टन कर्नल शेर ख़ान मिले जो उनके दोस्त थे. दोनों पाकिस्तान मिलिट्री एकेडमी में एक ही कोर्स के साथी थे और एक ही कमरे में भी रह चुके थे.

टाइगर हिल्स पर कर्नल शेर ख़ान और कैप्टन अम्मार हुसैन की भारतीय फ़ौजियों के साथ हुई लड़ाई की पुष्टि उनकी मां के अलावा उस समय के ब्रिगेड कमांडर ने भी की.

टाइगर हिल्स पर पाकिस्तानी फ़ौजियों ने तीन रक्षात्मक लाइनें बना रखी थीं जिन्हें कोड नंबर 129 ए, बी और सी दिया गया था.

भारतीय फ़ौजी 129 बी पर रक्षात्मक लाइन को काटने में सफल हो गए थे. यहां टाइगर हिल्स की चोटी पर सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चौकी पर मेजर अरशद समेत 23 फ़ौजी अफ़सर मौजूद थे. जब भारतीय सेना ने 129 बी पर क़ब्ज़ा किया तो कैप्टन करनाल शेर ख़ान और मेजर अरशद की चौकी के बीच की रक्षात्मक लाइन ध्वस्त हो गयी.

कैप्टन कर्नल शेर ख़ान और कैप्टन अम्मार का आख़िरी ऑपरेशन

कैप्टन कर्नल शेर ख़ान और कैप्टन अम्मार हुसैन की ज़िम्मेदारी मेजर अरशद समेत दूसरे साथियों को सुरक्षित करने के लिए ऑपरेशन करना था.

चार जुलाई को कैप्टन शेर ख़ान अपने दोस्त कैप्टन अम्मार से आ मिले. दूसरी सुबह उन्होंने भारतीय फ़ौजियों पर हमला करने की योजना बनाई.

कर्नल (रिटायर्ड) अशफ़ाक़ हुसैन अपनी किताब में लिखते हैं कि 'रात को उन्होंने सारे सिपाहियों को जमा किया और शहीद होने पर एक तक़रीर की. सुबह पांच बजे उन्होंने नमाज़ अदा की और कैप्टन अम्मार के साथ हमले पर निकल गये.'

इस बारे में कैप्टन अम्मार की मां बताती हैं कि उन्हें उस समय चौकी पर मौजूद लेफ़्टिनेंट इक़बाल और नज़दीकी पोस्ट पर मौजूद फ़ौजी स्नाइपर्स (माहिर निशानेबाज) ने इन शब्दों में उस दिन के हालात बताए.

 
'लेफ़्टिनेंट इक़बाल ने मुझे बताया कि अम्मार सारी रात जागते रहे और योजना बनाते रहे. पर्चियां लिखते और फाड़ते. शेर ख़ान रात मोर्चे पर पहुंचे. कैप्टन अम्मार ने तहज्जुद की नमाज़ (रात के आख़िरी पहर में पढ़ी जाने वाली नमाज़) अदा की और फिर वह निकल गए. उन्होंने पोस्ट के इर्द-गिर्द भारत की ब्लॉकिंग पोजीशन को तबाह किया और वापस आ गए.'

'जब वापस पहुंचे तो सुबह हो गई थी और भारतीय सेना की गोलाबारी और हवाई हमला शुरू हो गया था. अम्मार वापस आए और कहा, शेर ख़ान उठो, बहुत देर हो गई है.' कैप्टन शेर ख़ान कहने लगे, पहले नमाज़ पढ़ लें तो अम्मार ने कहा कि नहीं, नमाज़ ऊपर पढ़ेंगे.' एक सूबेदार ने कहा कि सर, अब तो उजाला हो गया है तो करनाल शेर ख़ान ने उन्हें कहा कि बुज़दिलों वाली बात करते हो?' उनके साथ सात या आठ जवान भी थे.

'उसके बाद जब वह लड़ने निकले तो शहीद होते गए. आख़िर में शेर ख़ान और अम्मार बच गए. वहां एक रिज यानी चोटी थी और दोनों उससे आगे गए. वहां भारतीय कैंप था, हाथ उठा लेते तो बच जाते मगर उन्होंने हथियार नहीं डाले. दोनों स्नाइपर की गोलियों से शहीद हुए. अम्मार को सिर, सीने और टांग पर गोली लगी और फिर वह गिर गए.'

'जनरल मुशर्रफ़ ने वादा किया था- हमारे बच्चे वापस आएंगे'

 
इस कार्रवाई के बाद कैप्टन करनाल शेर ख़ान की बॉडी तो पाकिस्तान के हवाले कर दी गई लेकिन कैप्टन अम्मार और दूसरे साथियों को भारतीय सेना ने टाइगर हिल्स पर ही दफ़न कर दिया.

युद्ध समाप्त होने के बाद भारतीय सेना ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के प्रतिनिधियों को क्षेत्र का दौरा कराया और एक स्थान पर पाकिस्तानी झंडे में लिपटे शवों की नमाज़-ए-जनाज़ा (दफ़न से पहले की नमाज़) और दफ़न होते हुए दिखाया.

यह वह ख़बर थी जिससे कैप्टन अम्मार की मां के दिल को कुछ तसल्ली मिली जो लगातार यही चाहती थीं कि उनके बेटे की बॉडी वापस लाई जाए. वो बताती हैं कि पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ़ ने उनसे वादा भी किया था कि बॉडी वापस लाई जाएगी.

वो याद करती हैं कि 'जनरल मुशर्रफ़ हमारे घर आए और मुझसे पूछा कि आपको कोई प्रॉब्लम है? मैंने कहा हमारे बच्चे वापस ले आएं. उन्होंने मुझसे वादा किया कि हम ज़रूर लाएंगे.'

'फिर मैं दरख़ास्तें देती रही, टेलीफ़ोन करती रही मगर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ साल बाद एसएसजी की री-यूनियन में वो मिले तो मैंने कहा कि आप तो वादा करके गए थे. मगर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.'

पैसे, ज़मीन, फ़्लैट... बेटे की जगह नहीं ले सकते'

 
कैप्टन अम्मार की मां कहती है कि फ़ौज की ओर से उनका बहुत ख्याल रखा गया और कैप्टन अम्मार को उनकी बहादुरी के बदले सितारा-ए-जुरअत भी दिया गया.

पाकिस्तानी फ़ौज में आर्थिक पैकेज के ज़रिए किसी भी मोर्चे पर जान गंवाने वाले अफ़सरों और जवानों के घर वालों की सभी ज़रूरतें पूरी करने की व्यवस्था है.

'मुझे हमेशा यह एहसास होता था कि मेरा बेटा वापस आ जाएगा. मगर अब यक़ीन नहीं कि वह वापस आएगा. वह ख़ुदा के पास चला गया. फिर फ़ौज में मेरा बहुत ख्याल रखा. अम्मार की यूनिट वाले और उनके कोर्समेट हर मौके पर बुलाते हैं. हर ख़ुशी और ग़मी में हमारे पास आते हैं. ऐसा लगता है कि एक अम्मार गया और मुझे कई अम्मार मिल गए.'

इसके बावजूद वो एक आम सी माँ भी हैं जो अपनी औलाद के खो जाने के दुख का इज़हार दबे-छिपे लफ़्ज़ों में बार-बार करती हैं.

'फ़ौज ने बहुत कुछ किया. अम्मार को सितारा-ए-जुरअत भी मिला. ज़मीन भी दी. मगर ये पैसे, ज़मीन, फ्लैट, ये घर - ये चीज़ें बेटे का बदल नहीं हो सकतीं. क्या मैं उन पैसों से अम्मार को ख़रीद सकती हूँ?'

मेजर अरशद: 'रक्षा न कर पाया तो वापस नहीं आऊंगा'

 
कैप्टन अम्मार अकेले ऐसे अफ़सर नहीं हैं जो बर्फ़ से ढकी चट्टानों पर दफ़न हैं. ऐसे ही एक अफ़सर मेजर अरशद भी थे.

एक पूर्व फ़ौजी अफ़सर ने मेजर अरशद के बारे में बताया है कि उनका संबंध कराची से था, इसलिए उनके आला अफ़सर उन्हें टाइगर हिल्स पर तैनात नहीं करना चाहते थे.

उन्हें लगता था कि उनके लिए वहां का ख़राब मौसम बर्दाश्त करना मुश्किल होगा.

वह नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि 'मेजर अरशद ज़िद पर अड़े थे. आख़िरकार उन्हें इजाज़त मिल गई कि वह टाइगर हिल्स की एक चोटी पर क़ायम अहम चौकी की कमान संभालें.'

 
जब उन्हें बताया गया कि उनकी रक्षा के लिए बनी टाइगर हिल्स की एक और चौकी पर कैप्टन करनाल शेर ख़ान तैनात होंगे तो उन्होंने गहरी सांस ली और कहा अगर कैप्टन शेर है तो फिर मुझे कोई फ़िक्र नहीं.'

उन्होंने जाने से पहले अपने आला अफ़सरों से कहा कि 'मैं उस चौकी की पूरी रक्षा करूंगा और अगर ऐसा न कर सका तो मैं वापस नहीं आऊंगा.'

पाकिस्तानी फ़ौजियों को, जो वापस लौट रहे थे, लगातार भारतीय गोलाबारी का सामना करना पड़ रहा था. पांच जुलाई को कैप्टन करनाल शेर ख़ान और कैप्टन अम्मार हुसैन ने बहादुरी से लड़ते हुए मेजर अरशद की पोस्ट तक पहुंचने में रुकावट बनी भारतीय पोस्ट को ख़त्म करने की कोशिश की मगर वे सफल न हो सके.

मेजर अरशद और उनके साथी अब हर तरफ़ से भारतीय चौकियों के निशाने पर थे. यहां उनके पास एक ही बेहद सीमित और ख़तरों से भरपूर ऑपरेशन था.

उन्होंने अपने साथियों को टोलियों में बांटा और उनको भारतीय चौकियों की नाक तले एक ख़ुफ़िया रास्ते से गुज़रने के लिए छलांग लगाने का आदेश दिया.

उनके साथ मौजूद सभी अफ़सरों ने ऐसा ही किया और बर्फ़ीली ढलानों पर फिसलते हुए वापसी के रास्ते की तरफ़ बढ़े. आश्चर्यजनक तौर पर इस पोस्ट के तमाम फ़ौजी अफ़सर ज़िंदा सलामत वापस पहुंचे, सिवा मेजर अरशद के.

पूर्व फ़ौजी अफ़सर के अनुसार 'मेजर अरशद पोस्ट पर रहने वाले आख़िरी अफ़सर थे.'

वो कहते हैं कि उन्होंने मेजर अरशद के साथ रहे आख़िरी फ़ौजी अफ़सर से पूछा कि वह कहां रह गए तो उनको जवाब मिला कि 'मेजर अरशद ने उस समय तक ढलान से छलांग न लगाई जब तक कि बाक़ी फ़ौजी वहां से न निकल गए. फिर मैंने मेरे अरशद को छलांग लगाते सुना लेकिन उसके बाद हमें कुछ पता नहीं चला कि वह कहां गए.'

कैप्टन फ़रहत हसीब: 'मुझे अब भी लगता है कि वह वापस आएगा'

कैप्टन फ़रहत हसन हैदर जून 1999 में कारगिल मोर्चे पर इक़बाल पोस्ट पर पहुंचे थे. यह तुरतुक का इलाक़ा था जहां चोटियों पर बनी चौकियों के कंट्रोल पर ज़बरदस्त लड़ाई जारी थी.

कैप्टन फ़रहत हसीब हैदर का संबंध पंजाब के इलाक़े तिल्ला गंग से था. उनके पैतृक आवास के अधिकतर कमरों पर ताले लगे हैं. मगर यहां अब भी एक व्यक्ति ऐसा है जो कहीं और जाने के विचार से ही ख़ौफ़ में है.

ये कैप्टन फ़रहत हसीब हैदर के पिता हैं. इनकी उम्र 90 के आसपास होगी. ढलती उम्र और बीमारियों ने उनकी बोलने की क्षमता और याददाश्त को बुरी तरह प्रभावित किया है मगर उनको वह लम्हा आज भी याद है जब वह आख़िरी बार अपने बेटे से मिले थे.

इन्होंने कहा कि 'मुझे अब भी लगता है कि वह आ जाएगा' और यह कहते हुए हो रो पड़े. इससे ज़्यादा बोलना और रोना उनकी सेहत के लिए बुरा था.

कैप्टन फ़रहत हसीब के बड़े भाई इतरत हुसैन भी कमोबेश ऐसी ही तकलीफ़ से गुज़रते हैं. मगर वो कहते हैं कि 'कैप्टन फ़रहत ख़ानदान का फ़ख्र हैं क्योंकि उन्होंने मुल्क के लिए जान दी.'

इतरत हुसैन ने बताया कि 'कैप्टन फ़रहत हसीब की मौत की ख़बर मिलने के कुछ ही अरसे बाद उनके पिता को दिल का दौरा पड़ा और बीमारियों का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया जबकि मां जो एक हंसमुख महिला थीं, गंभीर और कम बोलने वाली बन गईं.'

'मां यूनिफ़ॉर्म देखते तूने बेटा याद आता'

 
इतरत हुसैन ने अपनी मां के बारे में बताया कि 'वो बहादुर थीं मगर हम कोशिश करते थे कि उन्हें परेड न दिखाएं. वह यूनिफ़ॉर्म देखती तो उन्हें बेटा याद आता. उन्होंने बहुत हिम्मत और हौसले से ज़िंदगी गुज़ारी लेकिन मां तो मां होती है. कभी रो लिया करती थीं. असल बात यह है कि जब हम बच्चे को आर्मी में भेजते हैं तो किसी भी बात के लिए तैयार रहना चाहिए.'

कैप्टन फ़रहत जिस मोर्चे पर गए, वहां से उनके एक साथी ज़िंदा वापस आए जिनका नाम सुलेमान था.

उन्होंने इतरत हुसैन को बताया कि 'कैप्टन हसीब को जिस दिन भारत के ख़िलाफ़ एक जवाबी कार्रवाई का आदेश मिला तो उन्होंने सब को जमा किया और बताया कि उन्हें लड़ने का हुक्म मिला है और फ़ला इलाक़ा क्लियर करना है.'

'उसने कहा कि मेरे साथ सिर्फ़ वह आये जिसे वापस नहीं आना. उन्होंने कहा कि हमने शपथ ली है इसलिए हम किसी हालत में पीछे नहीं हटेंगे.'

'फिर उन्होंने वसीयत की कि मेरे घरवालों को बताना है कि मेरे ऊपर किसी का क़र्ज़ बाक़ी नहीं और यह कि ज़्यादातर नमाज़ मैंने पढ़ ली है और जो नहीं अदा कर पाया उनके लिए आलिम-ए-दीन (मौलाना) से पूछें कि क्या हुक्म है.'

कारगिल युद्ध लड़े फिर भी भारतीयता सवालों के घेरे में
 
'कैप्टन फ़रहत अपने साथियों को लीड कर रहे थे. फिर उन्होंने अल्लाह-हू- अकबर का नारा लगाकर फ़ायरिंग शुरू की. कुछ ही देर में उन्होंने कामयाबी से इलाक़ा क्लियर करवा लिया.'

मगर वे फिर ऊंचाई पर मौजूद गोलाबारी के निशाने पर आ गए.

'इस इलाक़े में ना कोई आड़ थी, न कोई पत्थर जिससे फ़ायर रुक सकता. यह लगभग निर्जन इलाक़ा था. इसलिए कैप्टन फ़रहत और उनके साथी इस गोलाबारी से नहीं बच सके. दो सिपाही बचे जिनमें से एक घायल होने की वजह से चल बसा जबकि दूसरे सुलेमान नामी सिपाही ने बताया कि कैप्टन फ़रहत हसीब ने बेहद दिलेरी के साथ मुक़ाबला किया.'

वे बताते हैं कि कैप्टन फ़रहत हसीब की बॉडी की वापसी के लिए उन्होंने कोशिश की. मगर वो समझते हैं कि इस बारे में उस समय के फ़ौजी और सिविल प्रशासन की ओर से और कोशिश होनी चाहिए थी.

'बॉडी नहीं थी तो एक प्रतिशत ही उम्मीद थी कि वो शायद ज़िंदा हों, जिनके फ़ोन आते, हम उनसे बात करते रहते थे लेकिन शायद उनकी बॉडी वहां थी जहां से वापस आना मुश्किल था.'

'हम यह सोचते थे कि क्या पता कोई चमत्कार हो जाए और वह वापस आ जाएं. अपनी आंखों से देखना कि क़ब्र में उतार दिया या सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया, कभी फ़ातिहा के लिए चले गए, कभी क़ुरानख़ानी कर दी तो ग़म की शिद्दत में कुछ कमी आ जाती है.

'मगर अब वह नहीं हैं और पता भी नहीं. यानी सुनी सुनाई बात है. उम्मीद रहती है कि शायद (कैप्टन फ़रहत) वापस आ जाएं. मगर अब इतना समय गुज़र गया है. वक़्त ने ज़ख़्म कम कर दिया है.'

'मैं आज भी सोचता हूं कि काश मैं भी उनके साथ होता. मैं गोली के आगे खड़ा हो जाता.'

बॉडी वापस ना आने के कारण

ऐसा भी नहीं कि पाकिस्तान की ओर से इस युद्ध में मारे जाने वाले अफ़सरों और जवानों की बॉडी वापस नहीं आई. ऐसे ज़्यादातर शव वापस लाए गए थे.

बीबीसी ने इस बारे में विभिन्न फ़ौजी अफ़सरों, जंग में मारे गए जवानों के घरवालों और उन इलाक़ों में मौजूद सिविल ठेकेदारों से बात की जो उस समय फ़ौजी चौकियों पर सामान पहुंचाने का काम कर रहे थे.

इन इलाक़ों से बॉडी में वापस न आने के बहुत से ऐसे कारण हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.

बीबीसी ने स्कर्दू के निवासी हुसैन नाम के ठेकेदार से बात की जिन्होंने कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी फ़ौजी दस्तों तक सामान पहुंचाने के लिए गाड़ी ठेके पर दे रखी थी वह ख़ुद यह गाड़ी ड्राइव करते थे.

वो कहते हैं कि एक सीमित इलाक़े तक गाड़ी जाती थी और वहां आना जाना बहुत मुश्किल काम था.

'दिन को ज़बरदस्त गोलाबारी होती थी इसलिए रात को सफ़र किया जाता था. ट्रैक नहीं बना हुआ था और एक सीमित दूरी तक गाड़ी जा सकती थी. हम खाने-पीने का सामान आदि देकर जाते थे और वापसी पर वहां से फ़ौजी अफ़सर आते. उनके साथ ज़ख्मी और मरने वाले फ़ौजी भी लाए जाते थे लेकिन उनकी ज़्यादा संख्या को फ़ौजी गाड़ियों में ही मेडिकल कैंप तक पहुंचाया जाता था.'

पाकिस्तानी फ़ौजी अफ़सरों की मैयत (डेड बॉडी) वापस लेने वाले एक अफ़सर लेफ्टिनेंट कर्नल आसिफ़ थे जो बाद में बतौर ब्रिगेडियर फ़ौज से रिटायर हुए. चूंकि पाकिस्तानी फ़ौजी दस्तों की वापसी सीज़फ़ायर यानी युद्ध विराम के समझौते के बग़ैर हो रही थी इसलिए भारतीय फ़ौज ने उन फ़ौजियों पर हमले जारी रखे जो अब वापसी के सफ़र पर थे.

लेफ़्टिनेंट कर्नल आसिफ़ भी फ़ौजी दस्तों की वापसी की प्रक्रिया को पूरी करने के लिए एक पोस्ट पर तैनात किए गए लेकिन 24 और 25 जुलाई को भारतीय सेना ने यहां हमला कर दिया. इस दौरान दोनों तरफ़ मौतें हुईं लेकिन पाकिस्तानी फ़ौजी उस समय वापसी की पोज़िशन में थे.

एक पाकिस्तानी और भारतीय फ़ौजी अफ़सर की मुलाक़ात की कहानी

ब्रिगेड हेडक्वार्टर ने उस समय भारतीय सेना से संपर्क किया और उनसे कहा कि 'हमारे जवानों के शव आपके पास हैं. वह हमें वापस करें.'

कर्नल आसिफ़ को ख़ास फ्रिकवेंसी बताई गई जिस पर संपर्क करने के बाद उन्होंने भारतीय पोस्ट पर अपने समकक्ष से मुलाक़ात की.

उस दिन के बारे में बात करते हुए एक पूर्व फ़ौजी अफ़सर ने बताया कि भारतीय कर्नल से जब शवों की वापसी के लिए मीटिंग हुई तो हमारे दर्जन भर लोग और उसके पीछे सैकड़ों अफ़सर खड़े थे.'

'उन्होंने हमारे अफ़सर से पूछा कि तुम्हारे कितने बंदे हैं. उनको बताया गया कि हमारी 10 बॉडी हैं. जिस पर भारतीय अफ़सर ने कहा कि यार मेरी तो बहुत ज्यादा हैं तुम्हारी इतनी कम क्यों?'

'फिर उन्होंने कहा कि तुम लोग हम पर फ़ायरिंग बंद करने का एलान करो. हमारी तरफ़ से उनको बताया गया कि तुम लोग हमला नहीं करोगे तो हम फ़ायरिंग नहीं करेंगे. लेकिन जब हमला होगा तो फ़ायर भी होगा. इसके बाद भारतीय अफ़सर ने कहा कि अब वह फ़ायर नहीं करेंगे. पाकिस्तान ने अपने अफ़सरों की मैयतें वापस लीं.'

कैप्टन तैमूर मलिक जिनका पार्थिव शरीर वापस आया
 
इसी तरह कैप्टन तैमूर मलिक की बॉडी भी पाकिस्तान वापस पहुंची. पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से संबंध रखने वाले कैप्टन तैमूर मलिक पाकिस्तान आर्मी की 38 आजाद कश्मीर और 3 एन एल आई बटालियन से जुड़े थे.

वह 27 जून 1999 को शेवक सब सेक्टर में एक कार्रवाई के दौरान भारतीय गोली का निशाना बने. लेकिन उनके घरवालों ने एक तरफ़ पाकिस्तान में सरकारी अफ़सरों से बातचीत की और दूसरी ओर ब्रिटेन में भारतीय उच्चायोग से भी संपर्क किया.

कैप्टन तैमूर मलिक के पिता भी पाकिस्तान आर्मी से बतौर कर्नल रिटायर हुए थे. उनके नाना और नानी उन दिनों ब्रिटेन में रह रहे थे. इसलिए उन्होंने भारतीय उच्चायोग को पत्र लिखा और उन्हें बताया कि उनके नाती की मौत किस इलाक़े में हुई और उनकी बॉडी इस वक्त भारत के पास मौजूद है.

उनकी ख़ुशक़िस्मती थी कि भारतीय उच्चायोग ने वह पत्र भारतीय फ़ौज तक पहुंचाया और इस तरह भारत ने उनकी बॉडी की वापसी का एलान किया.

कैप्टन तैमूर मलिक को पाकिस्तानी फ़ौज ने तमग़ा-ए-बसालत (बहादुरी का पदक) दिया और उन्हें पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में उनके पैतृक इलाक़े में दफ़न किया गया.

फ़ौजी अफ़सरों की वापसी के लिए बातचीत क्यों नहीं की गई?

 
यह सवाल हमने कई पूर्व फ़ौजी अफ़सरों और विश्लेषकों से पूछा. पाकिस्तान में कारगिल जंग एक संवेदनशील मामला समझा जाता है, इसलिए अक्सर समय पूर्व फ़ौजी अफ़सर इस मामले पर बहुत बात नहीं करते.

लेकिन नाम ना बताने की शर्त पर इस युद्ध का हिस्सा रहे कुछ अफ़सरों ने बीबीसी से बात की. उनके अनुसार कारगिल युद्ध में अधिकतर डेड बॉडी पाकिस्तान वापस लाई गईं और उनके घर वालों के हवाले की गईं.

एक अफ़सर के अनुसार 'इस मामले में जो बातें की जाती हैं, उनकी हैसियत एक प्रोपेगैंडा से ज्यादा कुछ नहीं. इसमें शक नहीं कि कुछ फ़ौजियों की मैयतें वापस नहीं लाई जा सकीं लेकिन यह संख्या बहुत ही कम है और इसके लिए बहुत ठोस कारण भी मौजूद हैं.'

इस समय फ़ौज में तैनात एक सीनियर अफ़सर ने भी बीबीसी से बात की और कहा कि 'भारत के साथ कुछ पत्राचार हुआ था मैयतों की वापसी के लिए और हमारी बॉडीज़ वापस लाई गई थीं. इक्का-दुक्का मामले ऐसे हैं जब ऐसा मुमकिन नहीं हो सका.'

युद्ध विराम के बिना फ़ौज वापस बुलाने का फ़ैसला
पूर्व फ़ौजी अफ़सर के अनुसार 'इस युद्ध की एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि सरकार ने फ़ौजी दस्ते वापस बुलाने का फ़ैसला तो कर लिया. मगर यह एक बिना शर्त समझौता था इसमें युद्ध विराम शामिल नहीं था.'

'आमतौर पर युद्ध की समाप्ति का एलान किया जाता है तो फ़ायर बंदी का समझौता होता है और फ़ौजी दस्तों को सूचना दी जाती है कि फलां सुबह फायर बंदी हो जाएगी और उसके बाद फ़ौजी वापसी की तैयारी करते हैं. मगर कारगिल युद्ध में सीज़फ़ायर नहीं किया गया.'

'किसी भी युद्ध या फ़ौजी ऑपरेशन के बाद यह नियम है कि दस्ते ग्रुप की शक्ल में वापस आने की बजाय दो या तीन अफ़सरों से बनी छोटी-छोटी टोलियों में सफ़र करते हैं. एक जगह तय की जाती है कि इतने किलोमीटर बाद फलां सब इकट्ठे होंगे. ऐसा दुश्मन के हमले से बचने के लिए किया जाता है ताकि वह सब को एक ही बार निशाना न बना सकें.'

'कारगिल में जब सीज़फ़ायर के बिना वापसी की प्रक्रिया शुरू हुई तो भारतीय फ़ौज ने उसका फ़ायदा उठाया और हमारे दो दो, तीन तीन की टोली में आते फ़ौजियों को गोलाबारी का निशाना बनाया जिनके पास अपनी सुरक्षा के लिए कुछ नहीं था. इसलिए यह पता लगाना नामुमकिन था कि वह कहां और किस इलाके़ में फ़ायरिंग का निशाना बने.'

कुछ फ़ौजी जिन्हें मरा हुआ समझा गया लेकिन वह वापस आये

 
एक और फ़ौजी अफ़सर ने कहा कि 'हमें यह भी पता नहीं चल सकता था कि अगर कोई जवान वापस नहीं आया तो क्या वह किसी गोली का निशाना बना है या मौसम की मार से या किसी खाई में गिरने से उसकी मौत हो गई है.'

'लेकिन ऐसी भी कई घटनाएं थीं कि हम यह समझे कि फ़लां फ़ौजी मारा गया और उनके घर वालों के लिए पेंशन और दूसरी सुविधाओं के काग़ज़ात तैयार करते हुए पता चलता कि वह फ़ौजी रास्ते में खो गया था और अब वापस पहुंच गया है.'

'उन पहाड़ी चोटियों पर ना कोई निशान थे, न ट्रैक बने थे जिनके सहारे कुछ पता लगाया जा सकता था.'

'इन पूर्व अफ़सरों के अनुसार ये इलाक़े बेहद दुर्गम थे जहां तापमान गलनांक से कई डिग्री नीचे रहता है.

हज़ारों फुट की ऊंचाई पर सांस लेने में परेशानी होती है और उस ऊंचाई की चढ़ाइयों के लिए एक फ़ौजी अपने साथ सिर्फ़ 20 किलो वज़न रख सकता है. इसमें खाने-पीने की चीज़ें, अस्त्र-शस्त्र और दूसरे सामान शामिल हैं.

किसी भी युद्ध में ज़ख़्मी और मारे जाने वाले फ़ौजियों में से ज़ख्मी को प्राथमिकता दी जाती है ताकि उसकी जान बचाई जा सके और आम युद्ध के माहौल में अगर मरने वालों की बॉडी साथ ले जाना मुमकिन न हो तो उन्हें वहीं अस्थाई तौर पर दफ़न करके निशान लगा दिए जाते हैं और युद्ध विराम के बाद उनकी मैयतें वापस ली जाती हैं.

कारगिल का कठिन मोर्चा
पूर्व अफ़सरों के अनुसार कारगिल मोर्चा का मैदान-ए-जंग बिल्कुल अलग था. यह बहुत ऊंचाई पर स्थित बेहद कठिन इलाक़ा था. यहां मौसम बेहद ख़राब था और बर्फ़ के तूफ़ान आम थे. जब पहाड़ी इलाक़ों से बॉडी या ज़ख्मी को नीचे लाना होता था तो उसे स्ट्रेचर पर बांध दिया जाता है और कम से कम दो फ़ौजी उसे घसीटते हुए वापस लाते हैं.'

इस युद्ध में कमान संभालने वाले वाले एक पूर्व फ़ौजी अफ़सर ने बताया कि ऊंचाई की चौकियों पर सामान पहुंचाने के लिए आमतौर पर 7 से 8 फ़ौजियों से बनी टीम भेजी जाती थी मगर उन्हें बहुत ही मुश्किल हालात में सफ़र करना पड़ता था.'

'एक तरफ़ ये भारतीय गोलाबारी के निशाने पर होते, दूसरी ओर रास्तों का पता नहीं होता था. तीसरी बात यह थी कि अगर भारतीय फ़ायरिंग से बच भी जाते तो रास्ते में आने वाली किसी न किसी चौकी या पॉइंट पर उन्हें कोई और ज़ख्मी या कोई जान गंवाने वाले फ़ौजी मिल जाता जिन्हें वापस लाना होता.'

'इस तरह इस टीम के दो फ़ौजी वहीं से ज़ख्मी फ़ौजी के साथ वापस रवाना हो जाते. हालत यह होती कि सबसे ऊपर वाली चौकी तक पहुंचने तक इस टीम में सिर्फ़ दो या तीन लोग ही बाक़ी बचते थे जिन्हें अक्सर 20 किलो से ज़्यादा वज़न उठाना पड़ता था ताकि चौकी तक सामान पहुंचाया जा सके.'

दूसरी ओर भारत और ख़ुद पाकिस्तान में कुछ समूहों की ओर से यह दावा किया जाता है कि पाकिस्तान ने कुछ फ़ौजी अफ़सरों की डेड बॉडी इसलिए नहीं ली कि पाकिस्तान यह दावा कर चुका था कि लाइन ऑफ़ कंट्रोल पार करके भारतीय फ़ौजियों पर हमला करने वाले वास्तव में 'कश्मीरी मुजाहिदीन' हैं.

इस बारे में बात करते हुए संबंधित स्रोत बताते हैं कि 'पाकिस्तान हमेशा अमन-पसंद देश रहा है और इसने शांति के लिए सभी क़दम भी उठाए हैं. लाइन ऑफ़ कंट्रोल पर युद्धविराम के लिए किए गए हालिया दिनों में उठाए गए कदम भी दुनिया के सामने हैं.

उनके अनुसार भारत 'इस प्रकार का मनगढ़ंत, झूठा और आधारहीन प्रोपेगेंडा सदा से करता आया है. पाकिस्तान ने सदा अपने शहीदों पर फ़ख्र किया चाहे वह किसी भी जंग या ऑपरेशन के क्यों न हों. इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि ये युद्ध किन परिस्थितियों और किस जगह पर हुआ.

'कारगिल युद्ध एक निर्जन स्थान पर हुआ और ऐसे इलाकों में अक्सर कोई न कोई डेड बॉडी दोनों तरफ़ की रह जाती हैं जो जानबूझकर नहीं किया जाता.'

26 जुलाई तक कारगिल युद्ध ख़त्म हो चुका था. .

तुरतूक के इलाक़े में उफ़नती नदी शेवक के पास बर्फ़ से ढंकी ढलानों पर भारतीय फ़ौजियों को कई हफ़्तों के बाद कैप्टन हनीफ़ उद्दीन की लाश मिल गई. उन्हें भारतीय सैन्य सम्मान वीर चक्र दिया गया. उनको नई दिल्ली में दफ़न किया गया. लेकिन कैप्टन फ़रहत हसीब की क़िस्मत अलग थी. उनका शव आज भी वहीं बर्फ़ की तह तले दफ़न है।

करीब 18 हजार फीट की ऊँचाई पर कारगिल में लड़ी गई लगभग 84 दिन के इस जंग में देश ने 527 से ज्यादा वीर योद्धाओं को खोया था वहीं 1300 से ज्यादा घायल हुए थे। युद्ध में 2700 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और 750 पाकिस्तानी सैनिक जंग छोड़ के भाग गए।

लगभग 30,000 भारतीय सैनिक और करीब 5000 घुसपैठिए इस युद्ध में शामिल थे। भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान के कब्ज़े वाली जगहों पर हमला किया और धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से पाकिस्तान को सीमा पार वापिस जाने को मजबूर किया।

जब कारगिल युद्ध हुआ था, उस समय भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। युद्ध जीतने के बाद उन्होंने ऑपरेशन विजय सफल होने का ऐलान किया था। ये भी बताया था कि भारत सरकार ने पाकिस्तान से बातचीत के लिए शर्तें रखी हैं। वहीं, इस युद्ध के समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ थे।

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)